दधीचि
दधीचि!
अब कभी तुम अपनी हडि्डयां
इंद्र जैसे देवता को मत दे देना,
अगर संघर्ष बहुत जरूरी मुद्दे को लेकर हो
और बिना तुम्हारी हडि्डयों के वज्र के काम न चले
तो अपने ही एक हाथ की हडि्डयों का वज्र बनाना
और दूसरे हाथ में उसे लेकर स्वयं टूट पड़ना।
दधीचि! तुम्हारी हडि्डयों से देवासुर संग्राम हुआ
कोई जीता ही होगा
कोई हारा ही होगा
लेकिन आम आदमी पर क्या फर्क पड़ा?
हाँ एक परम्परा जरूर कायम हो गयी
कि आम आदमी की हडि्डयों पर
देवताओं का अधिकार हो गया।
अब जिस भी देवता को
जिस किसी की भी
हडि्डयों की जरूरत होती है
तुम्हारे नाम पर तुम्हारी दुहाई देकर ले लेता है।
तुम शोषण के खिलाफ चुप रहने के
तो दोषी हो ही
एक गलत परम्परा डालने के भी दोषी हो।
आज भी तमाम सारे देवता
हमारी ही हडि्डयों से लड़ना चाहते हैं युद्ध
कोई देवता अपनी हडि्डयों से नहीं लड़ता,
क्या जो दूसरों की हडि्डयों के सहारे लड़ता है युद्ध
या जो दूसरों की हडि्डयों को लगाता है दांव पर
भले ही वज्र या कोई और भी अच्छा सा,
सुन्दर सा नाम देकर
वही देवता है ?
कभी-कभी तो लगता है
कि दधीचि
तुमने केवल अपनी ही हडि्डयाँ नहीं दीं
बल्कि भविष्य के अपने सभी वंशजों
की हडि्डयाँ भी दे डालीं
इसीलिए आज तुम्हारे वंशज
‘स्पाइनलेस', लिजलिजे हो गये हैं,
अब वे संग्रामों/महाभारतों के
मोहरे बन गये हैं।
और वे स्वयं अब अपना संग्राम
अपने अस्तित्व का संग्राम नहीं लड़ पा रहे हैं।
वैसे एक तरह से अच्छा ही हुआ दधीचि!
कि तुम्हारी हडि्डयाँ तुमसे पूछकर
एक झटके में ही ले ली गयीं
आज अनगिनत दधीचि हैं
जिनकी हडि्डयाँ तिल-तिल कर ली/चूसी जा रही हैं;
न जाने कौन सा वज्र बनाने के लिए
और उनसे पूछा भी नहीं जा रहा है।
हडि्डयाँ देते समय तुम क्या सोच रहे थे
क्या-क्या सपने देख रहे थे ?
कुछ वैसे ही सपने जैसा कि स्वतंत्रता संग्राम सेनानी
देखा करते थे, मसलन
‘हम तो कुर्बान हो रहे हैं
लेकिन भविष्य तो सुखी हो जाएगा।'
तुम उन स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों से तो अच्छे रहे
तुम्हें अपना स्वप्न भंग देखना तो नहीं पड़ा!
देवताओं ने लोगों से
अपनी संख्यायें कम करने को भी कहा
उन्होंने किया
अपने बच्चों की हडि्डयों को उगने नहीं दिया
बढ़ने नहीं दिया
अपनी ही नहीं, बच्चों की
अजन्मी हडि्डयाँ तक दे डालीं
और बाद में जब वरदान/नौकरियां/शक्तियां
बांटने की बारी आयी
तो कहा जाने लगा कि
‘इसका आधार योग्यता नहीं, त्याग नहीं,
संवेदना नहीं, मर्यादा नहीं,
न्याय नहीं, कार्य नहीं, क्षमता नहीं
संख्या बल होगा।'
कोई लोगों की संख्या के साथ-साथ
उन अजन्मी हडि्डयों को भी गिनेगा क्या?
वैसे लोगों को शक्तियां
दिखावे के लिए ही बांटी गयीं
असली शक्तियां तो देवताओं
ने अपने पास ही रखीं
लोगों को शक्तियों का सब्जबाग ही दिखाया गया,
शक्तियां बांटने का नाटक ही किया गया।
दधीचि! तुम्हारी हडि्डयों का वज्र बनाकर
किसी और का संहार हुआ था,
आज यह कैसी विडंबना है
कि तुम्हारी हडि्डयों के वज्र से
तुम्हारा ही संहार किया जा रहा है।
वैसे फिर भी गनीमत यह
कि तुम्हारी हडि्डयां
युद्ध की विभीषिका के बीच ली गयीं।
बाद में तो हडि्डयां ली जाने लगीं
आखेट के लिए,
क्रीड़ा के लिए
मनोरंजन के लिए
आँकड़ों के लिए
अहंकार तुष्टि के लिए,
पहले तो देवता ही हडि्डयां लेते थे
अब तो मशीनें भी
हडि्डयां ले रही हैं
ट्रैक्टरों ने बैलों की हडि्डयां ले लीं
बैल काट डाले गये।
दधीचि! तुम्हारी मूर्ति
किसी भी चौराहे पर या मंदिर में नहीं लगी
मूर्तियां तो देवताओं की लगती हैं
या फिर जो भी जीत जाए उसी की
जो हडि्डयां लेता है
मूर्तियां उसी की लगती हैं,
जो हडि्डयां देता है
उसकी मूर्तियां नहीं लगा करतीं।
लेकिन एक न एक दिन सभी राज खुलते हैं
स्थितियां पलटती हैं
मूर्तियां भी पलटती हैं
धराशायी होती हैं
पैरों तले रौंदी जाती हैं
इतिहास भरा पड़ा है ऐसे
अनगिनत उदाहरणों से
किसी ने कवच कुण्डल दिया
किसी ने राज-पाठ
किसी ने धन-दौलत
किसी ने अपने सामने की थाली का भोजन
और किसी ने ऐसे ही
अन्य दान/बलिदान
उन पर इतनी चर्चा-परिचर्चा,
और दधीचि तुमने अपनी सारी हडि्डयाँ दे दीं
कहीं कोई चर्चा नहीं
समाज मौन! सब मौन!
वैसे छोटी-मोटी साधनाओं/दान से ही
देवताओं में
इन्द्र में खलबली मच जाती है
और तुम तो साधना की
चरम परिणति थे
चरम उत्कर्ष थे!
इन्द्र स्वयं हडि्डयाँ मांगने आया था!
यह बताओ दधीचि
यह हडि्डयाँ दे देना
तुम्हारी तपस्या थी
या इन्द्र द्वारा किया गया तुम्हारी तपस्या भंग ?
यह भी सुना गया कि
किसी ने अपने शरीर का टुकड़ा दान दिया
किसी ने बच्चे का
और किसी ने दान दिया अपने बच्चे को ही।
लेकिन बाद में पता चला
कि यह तो केवल परीक्षा थी
बाद में सब कुछ ठीक-ठाक हो गया
सब सशरीर वापस हो गए।
दधीचि! कहीं तुम्हें भी भ्रम तो नहीं हो रहा था
कि इंद्र तुम्हारी परीक्षा ले रहा था?
दधीचि! ऐसी परीक्षाओं से बचना।
दधीचि!
हडि्डयों का वज्र बनाने का आधार कभी आवेग,
उत्त्ोजना, निराशा या श्रद्धा मत बनाना।
हमेशा न्याय और विवेक ही आधार बनाना।
दधीचि की परम्परा के
सबसे बड़े शिकार
तो बेचारे पेड़ ही हुए हैं;
पेड़ों की लकड़ियाँ
उनकी हडि्डयां नहीं है तो हैं क्या?
और जितने भी इंद्रासन/सिंहासन हैं
सभी तो हडि्डयों से ही बने हैं
पेड़ों की हडि्डयां तो सामने दिखती हैं
लेकिन उसके पीछे या आधार में छिपी
अनगिनत दधीचियों की हडि्डयां हैं जो दिखती नहीं।
लोकहित के लिए बेसहारों और
अति जरूरतमंदों को अपनी हडि्डयां
दे देने में कोई बुराई भी नहीं है
मृत्यु के बाद
हम सभी मनुष्य, जानवर, पशु-पक्षी,
जीव-जन्तु
अपनी हडि्डयां तो दे ही देते हैं
फास्फोरस के रूप में, उर्वरक के रूप में,
वनस्पतियों को, पेड़-पौधों को।
माँयें भी तो
अपनी हडि्डयों को
तिल-तिल कर देती रहती हैं
शिशु को, भविष्य को।
यदि वर्तमान अपनी हडि्डयां भविष्य को देता है
तो समझ में आता है
लेकिन वर्तमान यदि अपनी हडि्डयां
पुरातत्व को देने लगे
देवताओं को देने लगे
या वर्तमान यदि भविष्य की हडि्डयां छीनने लगे
तो मामला जरूर गड़बड़, उल्टा-पल्टा है।
हडि्डयां देने के लिए विह्वल/आतुर करने के लिए
रचे जाते हैं तमाम सारे शास्त्र और साहित्य
बदल दिये जाते हैं लोगों के दिमाग।
लोग सोचने लगते हैं
कि वे दधीचि हैं
और अस्थियां देना ही उनका पुनीत कर्तव्य है।
और जब हडि्डयां देने को आतुर/विह्वलों की संख्या
बढ़ जाती है बेतहाशा
तो फिर शुरू हो जाता है हडि्डयों का थोक व्यापार
धर्म और राजनीति अक्सर
इनके सुपर मार्केट बन जाते हैं।
वैसे अब तक इस सृष्टि में
रही हैं दो ही जातियां
हडि्डयां लेने वालों की
और हडि्डयां देने वालों की।
बाकी सारे ही वर्गीकरण और बंटवारे
चाहे वह किसी भी नाम से होते रहे हों
धर्म, जाति, क्षेत्र, वंश, रंग या भाषा
सभी व्यक्तिगत स्वार्थों की पूर्ति के
मुलम्मे ही रहे हैं।
केवल और केवल
दो ही जातियां रही हैं
हडि्डयां लूटने वालों की
और हडि्डयां लुटाने वालों की
बाकी सारे खेल तो नारे रहे हैं।
काश! हमारी हडि्डयों का फास्फोरस
सुसुम और नम होकर
इतना प्रज्ज्वलित हो जाता
जिससे बंद हो जाता
हडि्डयों के लूट-मार का यह खेल।
कहा जाता है
कि इंद्र ने तुमसे मांगी हडि्डयां
तो दधीचि तुमने शर्त रखी कि
तुम हडि्डयां देने के पहले ग्रहण करना चाहते हो
विश्व की सारी नदियों, समुद्रों का जल
तो इंद्र ने कहा
कि ‘यह जो तुम्हारे सामने कुंड है
उसी में लाये देता हूं सम्पूर्ण पृथ्वी के
सारे जलाशयों का जल।'
तुम्हें सोचने-समझने का मौका भी न दिया
और मेरे भोले दधीचि!
तुमने सहज विश्वास कर लिया
उस छली इंद्र पर;
और उसी कुंड का जल ग्रहण कर
मान लिया कि हो गयी तुम्हारी प्रतिज्ञा पूरी
और तुमने दे दीं इंद्र को हडि्डयां!
क्या पता कि उस कुंड में सभी जलाशयों का जल
वह छली इंद्र लाया भी था या नहीं?
अब भविष्य में कभी
कोई तुम्हारी अस्थियां मांगे
तो खूब सोच विचार करना
दुनिया के सभी जलाशयों का जल
स्वयं ही जाकर ग्रहण करना
ताकि समय मिल सके जानने-पहचानने का,
सोचने-विचारने का।
और अगर संग्राम बहुत जरूरी मुद्दे को लेकर हो
और बिना तुम्हारी हडि्डयों के वज्र के काम न चले
तो अपने ही एक हाथ की हडि्डयों का वज्र बनाना
और दूसरे हाथ में उसे लेकर टूट पड़ना
आततायियों पर, अन्यायियों पर,
शोषकों पर, पर्यावरण विनाशकों पर।
और अगर जरूरत पड़े तो टूट पड़ना
बेवजह हडि्डयां मांगने वालों पर भी।
poem by girish pande,in the syllabus of mysore university graduation classes hindi text book
दधीचि!
अब कभी तुम अपनी हडि्डयां
इंद्र जैसे देवता को मत दे देना,
अगर संघर्ष बहुत जरूरी मुद्दे को लेकर हो
और बिना तुम्हारी हडि्डयों के वज्र के काम न चले
तो अपने ही एक हाथ की हडि्डयों का वज्र बनाना
और दूसरे हाथ में उसे लेकर स्वयं टूट पड़ना।
दधीचि! तुम्हारी हडि्डयों से देवासुर संग्राम हुआ
कोई जीता ही होगा
कोई हारा ही होगा
लेकिन आम आदमी पर क्या फर्क पड़ा?
हाँ एक परम्परा जरूर कायम हो गयी
कि आम आदमी की हडि्डयों पर
देवताओं का अधिकार हो गया।
अब जिस भी देवता को
जिस किसी की भी
हडि्डयों की जरूरत होती है
तुम्हारे नाम पर तुम्हारी दुहाई देकर ले लेता है।
तुम शोषण के खिलाफ चुप रहने के
तो दोषी हो ही
एक गलत परम्परा डालने के भी दोषी हो।
आज भी तमाम सारे देवता
हमारी ही हडि्डयों से लड़ना चाहते हैं युद्ध
कोई देवता अपनी हडि्डयों से नहीं लड़ता,
क्या जो दूसरों की हडि्डयों के सहारे लड़ता है युद्ध
या जो दूसरों की हडि्डयों को लगाता है दांव पर
भले ही वज्र या कोई और भी अच्छा सा,
सुन्दर सा नाम देकर
वही देवता है ?
कभी-कभी तो लगता है
कि दधीचि
तुमने केवल अपनी ही हडि्डयाँ नहीं दीं
बल्कि भविष्य के अपने सभी वंशजों
की हडि्डयाँ भी दे डालीं
इसीलिए आज तुम्हारे वंशज
‘स्पाइनलेस', लिजलिजे हो गये हैं,
अब वे संग्रामों/महाभारतों के
मोहरे बन गये हैं।
और वे स्वयं अब अपना संग्राम
अपने अस्तित्व का संग्राम नहीं लड़ पा रहे हैं।
वैसे एक तरह से अच्छा ही हुआ दधीचि!
कि तुम्हारी हडि्डयाँ तुमसे पूछकर
एक झटके में ही ले ली गयीं
आज अनगिनत दधीचि हैं
जिनकी हडि्डयाँ तिल-तिल कर ली/चूसी जा रही हैं;
न जाने कौन सा वज्र बनाने के लिए
और उनसे पूछा भी नहीं जा रहा है।
हडि्डयाँ देते समय तुम क्या सोच रहे थे
क्या-क्या सपने देख रहे थे ?
कुछ वैसे ही सपने जैसा कि स्वतंत्रता संग्राम सेनानी
देखा करते थे, मसलन
‘हम तो कुर्बान हो रहे हैं
लेकिन भविष्य तो सुखी हो जाएगा।'
तुम उन स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों से तो अच्छे रहे
तुम्हें अपना स्वप्न भंग देखना तो नहीं पड़ा!
देवताओं ने लोगों से
अपनी संख्यायें कम करने को भी कहा
उन्होंने किया
अपने बच्चों की हडि्डयों को उगने नहीं दिया
बढ़ने नहीं दिया
अपनी ही नहीं, बच्चों की
अजन्मी हडि्डयाँ तक दे डालीं
और बाद में जब वरदान/नौकरियां/शक्तियां
बांटने की बारी आयी
तो कहा जाने लगा कि
‘इसका आधार योग्यता नहीं, त्याग नहीं,
संवेदना नहीं, मर्यादा नहीं,
न्याय नहीं, कार्य नहीं, क्षमता नहीं
संख्या बल होगा।'
कोई लोगों की संख्या के साथ-साथ
उन अजन्मी हडि्डयों को भी गिनेगा क्या?
वैसे लोगों को शक्तियां
दिखावे के लिए ही बांटी गयीं
असली शक्तियां तो देवताओं
ने अपने पास ही रखीं
लोगों को शक्तियों का सब्जबाग ही दिखाया गया,
शक्तियां बांटने का नाटक ही किया गया।
दधीचि! तुम्हारी हडि्डयों का वज्र बनाकर
किसी और का संहार हुआ था,
आज यह कैसी विडंबना है
कि तुम्हारी हडि्डयों के वज्र से
तुम्हारा ही संहार किया जा रहा है।
वैसे फिर भी गनीमत यह
कि तुम्हारी हडि्डयां
युद्ध की विभीषिका के बीच ली गयीं।
बाद में तो हडि्डयां ली जाने लगीं
आखेट के लिए,
क्रीड़ा के लिए
मनोरंजन के लिए
आँकड़ों के लिए
अहंकार तुष्टि के लिए,
पहले तो देवता ही हडि्डयां लेते थे
अब तो मशीनें भी
हडि्डयां ले रही हैं
ट्रैक्टरों ने बैलों की हडि्डयां ले लीं
बैल काट डाले गये।
दधीचि! तुम्हारी मूर्ति
किसी भी चौराहे पर या मंदिर में नहीं लगी
मूर्तियां तो देवताओं की लगती हैं
या फिर जो भी जीत जाए उसी की
जो हडि्डयां लेता है
मूर्तियां उसी की लगती हैं,
जो हडि्डयां देता है
उसकी मूर्तियां नहीं लगा करतीं।
लेकिन एक न एक दिन सभी राज खुलते हैं
स्थितियां पलटती हैं
मूर्तियां भी पलटती हैं
धराशायी होती हैं
पैरों तले रौंदी जाती हैं
इतिहास भरा पड़ा है ऐसे
अनगिनत उदाहरणों से
किसी ने कवच कुण्डल दिया
किसी ने राज-पाठ
किसी ने धन-दौलत
किसी ने अपने सामने की थाली का भोजन
और किसी ने ऐसे ही
अन्य दान/बलिदान
उन पर इतनी चर्चा-परिचर्चा,
और दधीचि तुमने अपनी सारी हडि्डयाँ दे दीं
कहीं कोई चर्चा नहीं
समाज मौन! सब मौन!
वैसे छोटी-मोटी साधनाओं/दान से ही
देवताओं में
इन्द्र में खलबली मच जाती है
और तुम तो साधना की
चरम परिणति थे
चरम उत्कर्ष थे!
इन्द्र स्वयं हडि्डयाँ मांगने आया था!
यह बताओ दधीचि
यह हडि्डयाँ दे देना
तुम्हारी तपस्या थी
या इन्द्र द्वारा किया गया तुम्हारी तपस्या भंग ?
यह भी सुना गया कि
किसी ने अपने शरीर का टुकड़ा दान दिया
किसी ने बच्चे का
और किसी ने दान दिया अपने बच्चे को ही।
लेकिन बाद में पता चला
कि यह तो केवल परीक्षा थी
बाद में सब कुछ ठीक-ठाक हो गया
सब सशरीर वापस हो गए।
दधीचि! कहीं तुम्हें भी भ्रम तो नहीं हो रहा था
कि इंद्र तुम्हारी परीक्षा ले रहा था?
दधीचि! ऐसी परीक्षाओं से बचना।
दधीचि!
हडि्डयों का वज्र बनाने का आधार कभी आवेग,
उत्त्ोजना, निराशा या श्रद्धा मत बनाना।
हमेशा न्याय और विवेक ही आधार बनाना।
दधीचि की परम्परा के
सबसे बड़े शिकार
तो बेचारे पेड़ ही हुए हैं;
पेड़ों की लकड़ियाँ
उनकी हडि्डयां नहीं है तो हैं क्या?
और जितने भी इंद्रासन/सिंहासन हैं
सभी तो हडि्डयों से ही बने हैं
पेड़ों की हडि्डयां तो सामने दिखती हैं
लेकिन उसके पीछे या आधार में छिपी
अनगिनत दधीचियों की हडि्डयां हैं जो दिखती नहीं।
लोकहित के लिए बेसहारों और
अति जरूरतमंदों को अपनी हडि्डयां
दे देने में कोई बुराई भी नहीं है
मृत्यु के बाद
हम सभी मनुष्य, जानवर, पशु-पक्षी,
जीव-जन्तु
अपनी हडि्डयां तो दे ही देते हैं
फास्फोरस के रूप में, उर्वरक के रूप में,
वनस्पतियों को, पेड़-पौधों को।
माँयें भी तो
अपनी हडि्डयों को
तिल-तिल कर देती रहती हैं
शिशु को, भविष्य को।
यदि वर्तमान अपनी हडि्डयां भविष्य को देता है
तो समझ में आता है
लेकिन वर्तमान यदि अपनी हडि्डयां
पुरातत्व को देने लगे
देवताओं को देने लगे
या वर्तमान यदि भविष्य की हडि्डयां छीनने लगे
तो मामला जरूर गड़बड़, उल्टा-पल्टा है।
हडि्डयां देने के लिए विह्वल/आतुर करने के लिए
रचे जाते हैं तमाम सारे शास्त्र और साहित्य
बदल दिये जाते हैं लोगों के दिमाग।
लोग सोचने लगते हैं
कि वे दधीचि हैं
और अस्थियां देना ही उनका पुनीत कर्तव्य है।
और जब हडि्डयां देने को आतुर/विह्वलों की संख्या
बढ़ जाती है बेतहाशा
तो फिर शुरू हो जाता है हडि्डयों का थोक व्यापार
धर्म और राजनीति अक्सर
इनके सुपर मार्केट बन जाते हैं।
वैसे अब तक इस सृष्टि में
रही हैं दो ही जातियां
हडि्डयां लेने वालों की
और हडि्डयां देने वालों की।
बाकी सारे ही वर्गीकरण और बंटवारे
चाहे वह किसी भी नाम से होते रहे हों
धर्म, जाति, क्षेत्र, वंश, रंग या भाषा
सभी व्यक्तिगत स्वार्थों की पूर्ति के
मुलम्मे ही रहे हैं।
केवल और केवल
दो ही जातियां रही हैं
हडि्डयां लूटने वालों की
और हडि्डयां लुटाने वालों की
बाकी सारे खेल तो नारे रहे हैं।
काश! हमारी हडि्डयों का फास्फोरस
सुसुम और नम होकर
इतना प्रज्ज्वलित हो जाता
जिससे बंद हो जाता
हडि्डयों के लूट-मार का यह खेल।
कहा जाता है
कि इंद्र ने तुमसे मांगी हडि्डयां
तो दधीचि तुमने शर्त रखी कि
तुम हडि्डयां देने के पहले ग्रहण करना चाहते हो
विश्व की सारी नदियों, समुद्रों का जल
तो इंद्र ने कहा
कि ‘यह जो तुम्हारे सामने कुंड है
उसी में लाये देता हूं सम्पूर्ण पृथ्वी के
सारे जलाशयों का जल।'
तुम्हें सोचने-समझने का मौका भी न दिया
और मेरे भोले दधीचि!
तुमने सहज विश्वास कर लिया
उस छली इंद्र पर;
और उसी कुंड का जल ग्रहण कर
मान लिया कि हो गयी तुम्हारी प्रतिज्ञा पूरी
और तुमने दे दीं इंद्र को हडि्डयां!
क्या पता कि उस कुंड में सभी जलाशयों का जल
वह छली इंद्र लाया भी था या नहीं?
अब भविष्य में कभी
कोई तुम्हारी अस्थियां मांगे
तो खूब सोच विचार करना
दुनिया के सभी जलाशयों का जल
स्वयं ही जाकर ग्रहण करना
ताकि समय मिल सके जानने-पहचानने का,
सोचने-विचारने का।
और अगर संग्राम बहुत जरूरी मुद्दे को लेकर हो
और बिना तुम्हारी हडि्डयों के वज्र के काम न चले
तो अपने ही एक हाथ की हडि्डयों का वज्र बनाना
और दूसरे हाथ में उसे लेकर टूट पड़ना
आततायियों पर, अन्यायियों पर,
शोषकों पर, पर्यावरण विनाशकों पर।
और अगर जरूरत पड़े तो टूट पड़ना
बेवजह हडि्डयां मांगने वालों पर भी।
poem by girish pande,in the syllabus of mysore university graduation classes hindi text book
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