धरती जानती है
धरती जानती है
धरती वह सब भी जानती है
जो हम नहीं जानते।
युगों-युगों से तपी है यह धरती
लगातार तपस्यारत है, तप रही है।
किसी भी संत, महात्मा, ऋषि, ब्रह्मर्षि, फकीर, तीर्थंकर, बोधिसत्व
अवतार, पैगम्बर या मसीहा से अधिक तपी है धरती
और अभी तक अन्तर्धान भी नहीं हुई है
शायद असली अवतार, पैगम्बर या मसीहा धरती ही है।
वैसे भी सभी अवतारों, पैगम्बरों और मसीहाओं के प्रकाशपुंजों का
संलयन हो गया है
धरती के विराट आभामण्डल में।
लोग धरती को टटोलते हैं
कोई वर्तमान के लिए
कोई इतिहास के लिए
कोई भविष्य के लिए
लेकिन सबका भविष्य तो धरती ही है।
धरती सोचती है
‘मैं भी कैसी माँ हूँ
माँ तो केवल जन्म देती है
और मैं जन्म भी देती हूँ
और मृत्यु के बाद उन्हें अपनी कोख में
एक बार पुनः सुला लेती हूँ।
धरती केवल अपने को ही नहीं जानती
बल्कि, जल, पावक, समीर और गगन
सबको जानती है धरती
सौरमण्डल, अंतरिक्ष, आकाशगंगा
और समग्र काल और सृष्टि
सभी को जानती-पहचानती है धरती।
सारे नैसर्गिक नियमों को
जानती-मानती है धरती।
अग्नि, जल, वायु या आकाश
धरती के ऋत के साथ
जब अपना स्वर मिलाते हैं
तो निकलती हैं विभिन्न ध्वनियाँ
उनमें अधिकांश तो ममतामयी एवम् प्रिय ही होती हैं
लेकिन कभी-कभी वे रूप धर लेती हैं
ज्वालामुखी, बाढ़, तूफान या भूकंप का।
काश! हम आकाशवाणियों के साथ-साथ
समय रहते सुन पाते धरतीवाणियाँ भी।
धरती वैज्ञानिक भी है
और प्रयोगशाला भी।
धरती स्टेज भी है, कही अनकही कथा भी,
और रहस्य भी।
धरती सारे आवेश
अपने में समेट लेेती है
फिर भी रहती है अनावेशित।
जितनी भी मूर्तियाँ हैं जिन्हेंं हम पूजते हैं
जितनी भी इमारतें हैं जहां हम पूजते हैं
सभी धरती के टुकड़े हैं।
हम टुकड़ों की जगह, टुकड़ों-टुकड़ों की जगह
पूरी धरती की इबादत कब करेंगे ?
पूरी धरती की पूजा कब करेंगे ?
या पूरी धरती को
ईश्वर का प्रतीक कब मानेंगे ?
जब-जब लड़ाइयाँ हुई हैं
परिवारों में या राज्यों में
तो बेवजह कटी-खपी-नपी है धरती
और फिर भी
अखबारों, किताबों में कितनी कम छपी है धरती!
सारी गंदगी लोग करते हैं
और उनको समेटती-सहेजती है धरती
सबकी तपस्या की साथी, साधन और साक्षी रही है धरती
फिर भी फल और यश सबको लेने दिया
स्वयं नेपथ्य में ही रही धरती।
धरती को जानने के लिए
न तो किसी परिभाषा की जरूरत है
और न ही किसी शास्त्र की
क्यांेंकि अपनी परिभाषा और शास्त्र भी
स्वयं ही है धरती।
आकाश के अन्दर धरती है
यह सच है
लेकिन यह भी उतना ही सच है
कि धरती के अन्दर आकाश भी है।
लोग कहते हैं
आत्मा आकाश से आती है
मैं जानता तो नहीं
लेकिन मुझे विश्वास है
कि आत्मा भी धरती से आती है
या धरती के अन्दर के आकाश से आती है।
काश! सभी यह मान पाते
कि हमारी आत्मा
किसी और अन्तरिक्ष या आकाश से नहीं आयी है
शरीर के साथ-साथ
धरती से ही उपजी है आत्मा भी
इसीलिए आत्मा अपनी शांति के लिए
किसी और स्वर्ग की कामना न करे
धरती को ही क्यों न स्वर्ग माने।
कहा जाता है
धरती माँ है
और पिता आकाश
यह भी कहते हैं
कि मातृत्व एक निश्चितता (सर्टेनिटी) है
और पितृत्व एक संभाव्यता (प्रोबेबिलिटी)
और फिर धरती को कहते हैं
भोग-लोक, पाप-लोक, मृत्यु-लोक, दुःख-लोक
और आकाश में कल्पना करते हैं
स्वर्ग लोक की।
एक संभाव्यता के लिए
हम युगों-युगों से कर रहे हैं तिरस्कृत
निश्चितता को, धरती को।
धरती
मनुष्य और जीवों के साथ-साथ
राज्यों की भी माँ है, धर्मों की भी
व्यवस्थाओं की भी, सभ्यताओं की भी
और अवतारों-पैगम्बरों की भी।
धरती पर रहने वाले
सारे मनुष्य, जीव-जन्तु और वनस्पतियों से
धरती का एक ही सा रिश्ता है
जबकि अलग-अलग देवताओं, अवतारों, पैगम्बरों, मसीहाओं
से रिश्ते हैं अलग-अलग
अतः धरती को पूजना, पवित्रतम मानना
धरती के प्रति
उस सार्वभौमिक रिश्ते का सम्मान होगा।
लोग गणेश की तर्ज पर
माता-पिता गुरु का ध्यान कर लेते हैं
परिवार का ध्यान कर लेते हैं
परिक्रमा कर लेते हैं
और सोचते हैं कि पूरी धरती का ध्यान हो गया
परिक्रमा हो गयी।
प्रश्न कुछ था
उत्तर कुछ और दिया गया
और प्रश्न का गलत आशय लगाकर
परीक्षाफल कुछ और दे दिया गया।
और शराफत देखिए षडानन की
कि रिजल्ट पर पुनर्विचार के लिए
आवेदन भी न दिया।
आइये, हम सब एक बार
उक्त परीक्षाफल पर
पुनर्विचार के लिए षडानन् की तरफ से, धरती की तरफ से
आवेदन देते हैं।
गलत परीक्षाओं और
गलत नतीजे घोषित करने की
एक लम्बी परम्परा रही है मिथकों में
इसको तोड़ना होगा।
गणेश के मिथक का तो
बहुत ही अधिक गलत प्रयोग किया गया।
जो भी गुरू की परिक्रमा नहीं करता
उसे सफलता नहीं मिलती
भले ही पूरी दुनिया की परिक्रमा कर ले
पूरी दुनिया का ज्ञान हासिल कर ले।
लम्बी पिरक्रमाओं की परम्परायें
सच्चे अर्थों में
धरती से जुड़ने की परम्परायें हैं
पूजायें विवादित भी हो सकती हैं
लेकिन परिक्रमायें निर्विवाद हैं।
आइये, हम यथासंभव
परिक्रमायें करें।
हम नहीं कहते
कि सूर्य, चन्द्र, ग्रहों-नक्षत्रों की महिमा कम हो
या उनकी पूजा न हो
लेकिन उनकी पूजा से मतभेद उभर सकते हैं
कोई ‘क' ग्रह की पूजा करेगा
और कोई ‘ख' ग्रह का पूजक हो सकता है
और ‘क' की पूजा का विरोधी;
हम यही कहते हैं कि आप किसी भी ग्रह-नक्षत्र
या देवता की पूजा करिए
लेकिन उनका प्रतीक पूरी धरती को ही मानिये।
धरती की पूजा का यह अर्थ भी नहीं होगा
कि हम फिर मान लें कि
सूरज तथा सभी ग्रह-नक्षत्र
धरती की परिक्रमा करते हैं।
और एक बार फिर
इस सच को कहने वाले
‘कि धरती सूरज की परिक्रमा करती है'
का गला घोट दें, गैलीलियो की तरह।
नहीं, धरती की पूजा
सत्य के साथ ही होगी।
और धरती की पूजा का मतलब
पूरी धरती की पूजा,
उसके किसी खंड की नहीं।
कृष्ण ने इन्द्र के स्थान पर
गोवधर्न पर्वत की पूजा करायी थी।
कबीर ने व्यंग्य में ही कहा
‘पाहन पूजे हरि मिले तो मैं पूजूं पहार'
पहाड़ पूजने से कबीर को हरि मिलते या नहीं
कहा नहींं जा सकता
लेकिन वह पहाड़ जिसका एक अंग है
उस धरती को पूजने से
हरि जरूर मिलेंगे।
कबीर जब कहते हैं
‘ता चढ़ि मुल्ला बांग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय।'
मस्जिद पर तेज आवाज करने से
मुल्ला की ध्वनि खुदा सुनता है या नहीं
यह तो नहीं मालूम
लेकिन धरती से समग्रता से जुड़कर
समग्रता से आवाज निकालने पर
धरती भी सुनती है, खुदा भी।
एक मित्र ने कहा-
‘पहाड़ की पूजा धरती के प्रतीक के रूप में की जाये तो ?'
प्रश्न यही है
क्या प्रतीक को भी प्रतीक की आवश्यकता है ?
धरती से जुड़ना
धरती से जुड़ा महसूस करना
सबसे आसान पद्धति है ध्यान की
तुरन्त विलीन हो जाते हैं सारे मानसिक आवेश
और चित्त हो जाता है प्रशान्त।
धरती की पूजा के लिए
केवल यही मानना काफी नहीं होगा
कि पूजा वहीं होती है जहाँ सिर रखा जाता है
बल्कि हमारे एक मित्र ने कहा
कि सिर रखकर पूजायें नहीं छद्म हुए हैं।
दरअसल पूजा वही है जहाँ आप सदा पैर रखे हुए हैं
सदाचरण ही पूजा है।
पूजा की पूरी परिभाषा बदलनी होगी
पहले भी तो पूजा की पद्धतियाँ
बदलती ही रहीं
जब भी कोई सवाल गलत किया जाता रहा
उसे ट्रायल एण्ड एरर द्वारा
अलग-अलग तरीके से
करने की कोशिश की जाती रही।
फिर एक तरीका यह भी सही।
हो सकता है यही सही हो जाये।
वैसे धरती पूजा चाहती नहीं;
लेकिन फिर भी जब भी हम धरती से भावनात्मक रूप से जुडे़ हैं
तो उसकी पूजा ही कर रहे हैं।
कहा जाता है हनुमान ने सूरज को निगल लिया था
हनुमान ने सूरज को तो निगला लेकिन धरती को नहीं
धरती की तो सेवा की, पूजा की।
धार्मिकता/इतिहास की तलाश में
लोग धरती की खुदाई तक कर डालते हैं
‘ग' मीटर तक खोदते हैं तो एक अवशेष मिलता है
कल को कोई दूसरी व्यवस्था
‘2ग' मीटर तक खोद कर दूसरा अवशेष निकालती है
कल को तीसरी व्यवस्था
‘3 ग' मीटर .........................
कल को चौथी ..................
इसी प्रकार पांचवीं, छठी, सातवीं
व्यवस्थायें आती हैं और भिन्न-भिन्न अवशेष निकालती हैं
लेकिन इन सब खुदाइयों के बाद
अंत में जो निकलता है वह होता है मिट्टी और पानी
वही आध्यात्म का प्रतीक होता है
क्योंकि धार्मिक स्थलों के अवशेष भी हो सकते हैं
धर्मों के अवशेष हो सकते हैं
इतिहासों के आवेश हो सकते हैं
लेकिन आध्यात्म का अवशेष नहीं होता।
और यह सब होता देखकर धरती क्या
सोचती है.
‘मुझे ही खोद रहे हैं
धार्मिक स्थलों/इतिहासों के अवशेषों के लिए
और मैं जो स्वयं सबसे निकट और बड़ी
मूर्ति/कहानी हूँ ईश्वर की
उसे देख भी नहीं रहे हैं।'
धरती का अर्थ अक्सर
साम्राज्य ही लिया गया
इसीलिए प्रश्न उठाये गये
धरती का नेता कैसा हो ?
धरती का सेवक नहीं कहा गया।
‘वीरभोग्या वसुन्धरा'
के स्थान पर अब शाश्वत मंत्र होना चाहिए
‘सर्वपूज्या वसुंधरा'।
धरती की पूजा/सेवा वही कर सकता है
जो धरती को सुन सकता हो
महसूस कर सकता हो
समझ सकता हो
संवाद कर सकता हो।
धरती चूंकि निकट दिखती है
इसलिए हर व्यक्ति
धरती पर अधिकार चाहने लगा।
जो दृश्य है और निकट है
व्यक्ति उस पर अधिकार करना चाहता है
और जो अदृश्य है
उसे पूजना चाहता है
जबकि पूजा का संतुलित स्वरूप यही है
कि जो निकट है, दृश्य है और सम्पूर्ण है
वही विराट ईश्वर का सर्वश्रेष्ठ प्रतीक है।
यदि सभी लोग
धरती की पूजा करने लगें
तो सहज ही खत्म हो जायेंगे सारे झगड़े, टंटे
लेकिन धरती की पूजा का अर्थ
धरती पर अधिकार जमाना नहीं होगा
अधिकार जमाना कुछ और है
तथा पूजा करना, समझना, संवाद करना कुछ और।
विराट ब्रहमाण्ड को समझना ही आध्यात्म है
लेकिन पूजा प्रतीक की ही की जाती है
और धरती ही विराट ईश्वर का
सबसे आदर्श प्रतीक है पूजने के लिए
यह कितना अच्छा है
कि धरती जानती है।
धरती जानती है
धरती वह सब भी जानती है
जो हम नहीं जानते।
युगों-युगों से तपी है यह धरती
लगातार तपस्यारत है, तप रही है।
किसी भी संत, महात्मा, ऋषि, ब्रह्मर्षि, फकीर, तीर्थंकर, बोधिसत्व
अवतार, पैगम्बर या मसीहा से अधिक तपी है धरती
और अभी तक अन्तर्धान भी नहीं हुई है
शायद असली अवतार, पैगम्बर या मसीहा धरती ही है।
वैसे भी सभी अवतारों, पैगम्बरों और मसीहाओं के प्रकाशपुंजों का
संलयन हो गया है
धरती के विराट आभामण्डल में।
लोग धरती को टटोलते हैं
कोई वर्तमान के लिए
कोई इतिहास के लिए
कोई भविष्य के लिए
लेकिन सबका भविष्य तो धरती ही है।
धरती सोचती है
‘मैं भी कैसी माँ हूँ
माँ तो केवल जन्म देती है
और मैं जन्म भी देती हूँ
और मृत्यु के बाद उन्हें अपनी कोख में
एक बार पुनः सुला लेती हूँ।
धरती केवल अपने को ही नहीं जानती
बल्कि, जल, पावक, समीर और गगन
सबको जानती है धरती
सौरमण्डल, अंतरिक्ष, आकाशगंगा
और समग्र काल और सृष्टि
सभी को जानती-पहचानती है धरती।
सारे नैसर्गिक नियमों को
जानती-मानती है धरती।
अग्नि, जल, वायु या आकाश
धरती के ऋत के साथ
जब अपना स्वर मिलाते हैं
तो निकलती हैं विभिन्न ध्वनियाँ
उनमें अधिकांश तो ममतामयी एवम् प्रिय ही होती हैं
लेकिन कभी-कभी वे रूप धर लेती हैं
ज्वालामुखी, बाढ़, तूफान या भूकंप का।
काश! हम आकाशवाणियों के साथ-साथ
समय रहते सुन पाते धरतीवाणियाँ भी।
धरती वैज्ञानिक भी है
और प्रयोगशाला भी।
धरती स्टेज भी है, कही अनकही कथा भी,
और रहस्य भी।
धरती सारे आवेश
अपने में समेट लेेती है
फिर भी रहती है अनावेशित।
जितनी भी मूर्तियाँ हैं जिन्हेंं हम पूजते हैं
जितनी भी इमारतें हैं जहां हम पूजते हैं
सभी धरती के टुकड़े हैं।
हम टुकड़ों की जगह, टुकड़ों-टुकड़ों की जगह
पूरी धरती की इबादत कब करेंगे ?
पूरी धरती की पूजा कब करेंगे ?
या पूरी धरती को
ईश्वर का प्रतीक कब मानेंगे ?
जब-जब लड़ाइयाँ हुई हैं
परिवारों में या राज्यों में
तो बेवजह कटी-खपी-नपी है धरती
और फिर भी
अखबारों, किताबों में कितनी कम छपी है धरती!
सारी गंदगी लोग करते हैं
और उनको समेटती-सहेजती है धरती
सबकी तपस्या की साथी, साधन और साक्षी रही है धरती
फिर भी फल और यश सबको लेने दिया
स्वयं नेपथ्य में ही रही धरती।
धरती को जानने के लिए
न तो किसी परिभाषा की जरूरत है
और न ही किसी शास्त्र की
क्यांेंकि अपनी परिभाषा और शास्त्र भी
स्वयं ही है धरती।
आकाश के अन्दर धरती है
यह सच है
लेकिन यह भी उतना ही सच है
कि धरती के अन्दर आकाश भी है।
लोग कहते हैं
आत्मा आकाश से आती है
मैं जानता तो नहीं
लेकिन मुझे विश्वास है
कि आत्मा भी धरती से आती है
या धरती के अन्दर के आकाश से आती है।
काश! सभी यह मान पाते
कि हमारी आत्मा
किसी और अन्तरिक्ष या आकाश से नहीं आयी है
शरीर के साथ-साथ
धरती से ही उपजी है आत्मा भी
इसीलिए आत्मा अपनी शांति के लिए
किसी और स्वर्ग की कामना न करे
धरती को ही क्यों न स्वर्ग माने।
कहा जाता है
धरती माँ है
और पिता आकाश
यह भी कहते हैं
कि मातृत्व एक निश्चितता (सर्टेनिटी) है
और पितृत्व एक संभाव्यता (प्रोबेबिलिटी)
और फिर धरती को कहते हैं
भोग-लोक, पाप-लोक, मृत्यु-लोक, दुःख-लोक
और आकाश में कल्पना करते हैं
स्वर्ग लोक की।
एक संभाव्यता के लिए
हम युगों-युगों से कर रहे हैं तिरस्कृत
निश्चितता को, धरती को।
धरती
मनुष्य और जीवों के साथ-साथ
राज्यों की भी माँ है, धर्मों की भी
व्यवस्थाओं की भी, सभ्यताओं की भी
और अवतारों-पैगम्बरों की भी।
धरती पर रहने वाले
सारे मनुष्य, जीव-जन्तु और वनस्पतियों से
धरती का एक ही सा रिश्ता है
जबकि अलग-अलग देवताओं, अवतारों, पैगम्बरों, मसीहाओं
से रिश्ते हैं अलग-अलग
अतः धरती को पूजना, पवित्रतम मानना
धरती के प्रति
उस सार्वभौमिक रिश्ते का सम्मान होगा।
लोग गणेश की तर्ज पर
माता-पिता गुरु का ध्यान कर लेते हैं
परिवार का ध्यान कर लेते हैं
परिक्रमा कर लेते हैं
और सोचते हैं कि पूरी धरती का ध्यान हो गया
परिक्रमा हो गयी।
प्रश्न कुछ था
उत्तर कुछ और दिया गया
और प्रश्न का गलत आशय लगाकर
परीक्षाफल कुछ और दे दिया गया।
और शराफत देखिए षडानन की
कि रिजल्ट पर पुनर्विचार के लिए
आवेदन भी न दिया।
आइये, हम सब एक बार
उक्त परीक्षाफल पर
पुनर्विचार के लिए षडानन् की तरफ से, धरती की तरफ से
आवेदन देते हैं।
गलत परीक्षाओं और
गलत नतीजे घोषित करने की
एक लम्बी परम्परा रही है मिथकों में
इसको तोड़ना होगा।
गणेश के मिथक का तो
बहुत ही अधिक गलत प्रयोग किया गया।
जो भी गुरू की परिक्रमा नहीं करता
उसे सफलता नहीं मिलती
भले ही पूरी दुनिया की परिक्रमा कर ले
पूरी दुनिया का ज्ञान हासिल कर ले।
लम्बी पिरक्रमाओं की परम्परायें
सच्चे अर्थों में
धरती से जुड़ने की परम्परायें हैं
पूजायें विवादित भी हो सकती हैं
लेकिन परिक्रमायें निर्विवाद हैं।
आइये, हम यथासंभव
परिक्रमायें करें।
हम नहीं कहते
कि सूर्य, चन्द्र, ग्रहों-नक्षत्रों की महिमा कम हो
या उनकी पूजा न हो
लेकिन उनकी पूजा से मतभेद उभर सकते हैं
कोई ‘क' ग्रह की पूजा करेगा
और कोई ‘ख' ग्रह का पूजक हो सकता है
और ‘क' की पूजा का विरोधी;
हम यही कहते हैं कि आप किसी भी ग्रह-नक्षत्र
या देवता की पूजा करिए
लेकिन उनका प्रतीक पूरी धरती को ही मानिये।
धरती की पूजा का यह अर्थ भी नहीं होगा
कि हम फिर मान लें कि
सूरज तथा सभी ग्रह-नक्षत्र
धरती की परिक्रमा करते हैं।
और एक बार फिर
इस सच को कहने वाले
‘कि धरती सूरज की परिक्रमा करती है'
का गला घोट दें, गैलीलियो की तरह।
नहीं, धरती की पूजा
सत्य के साथ ही होगी।
और धरती की पूजा का मतलब
पूरी धरती की पूजा,
उसके किसी खंड की नहीं।
कृष्ण ने इन्द्र के स्थान पर
गोवधर्न पर्वत की पूजा करायी थी।
कबीर ने व्यंग्य में ही कहा
‘पाहन पूजे हरि मिले तो मैं पूजूं पहार'
पहाड़ पूजने से कबीर को हरि मिलते या नहीं
कहा नहींं जा सकता
लेकिन वह पहाड़ जिसका एक अंग है
उस धरती को पूजने से
हरि जरूर मिलेंगे।
कबीर जब कहते हैं
‘ता चढ़ि मुल्ला बांग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय।'
मस्जिद पर तेज आवाज करने से
मुल्ला की ध्वनि खुदा सुनता है या नहीं
यह तो नहीं मालूम
लेकिन धरती से समग्रता से जुड़कर
समग्रता से आवाज निकालने पर
धरती भी सुनती है, खुदा भी।
एक मित्र ने कहा-
‘पहाड़ की पूजा धरती के प्रतीक के रूप में की जाये तो ?'
प्रश्न यही है
क्या प्रतीक को भी प्रतीक की आवश्यकता है ?
धरती से जुड़ना
धरती से जुड़ा महसूस करना
सबसे आसान पद्धति है ध्यान की
तुरन्त विलीन हो जाते हैं सारे मानसिक आवेश
और चित्त हो जाता है प्रशान्त।
धरती की पूजा के लिए
केवल यही मानना काफी नहीं होगा
कि पूजा वहीं होती है जहाँ सिर रखा जाता है
बल्कि हमारे एक मित्र ने कहा
कि सिर रखकर पूजायें नहीं छद्म हुए हैं।
दरअसल पूजा वही है जहाँ आप सदा पैर रखे हुए हैं
सदाचरण ही पूजा है।
पूजा की पूरी परिभाषा बदलनी होगी
पहले भी तो पूजा की पद्धतियाँ
बदलती ही रहीं
जब भी कोई सवाल गलत किया जाता रहा
उसे ट्रायल एण्ड एरर द्वारा
अलग-अलग तरीके से
करने की कोशिश की जाती रही।
फिर एक तरीका यह भी सही।
हो सकता है यही सही हो जाये।
वैसे धरती पूजा चाहती नहीं;
लेकिन फिर भी जब भी हम धरती से भावनात्मक रूप से जुडे़ हैं
तो उसकी पूजा ही कर रहे हैं।
कहा जाता है हनुमान ने सूरज को निगल लिया था
हनुमान ने सूरज को तो निगला लेकिन धरती को नहीं
धरती की तो सेवा की, पूजा की।
धार्मिकता/इतिहास की तलाश में
लोग धरती की खुदाई तक कर डालते हैं
‘ग' मीटर तक खोदते हैं तो एक अवशेष मिलता है
कल को कोई दूसरी व्यवस्था
‘2ग' मीटर तक खोद कर दूसरा अवशेष निकालती है
कल को तीसरी व्यवस्था
‘3 ग' मीटर .........................
कल को चौथी ..................
इसी प्रकार पांचवीं, छठी, सातवीं
व्यवस्थायें आती हैं और भिन्न-भिन्न अवशेष निकालती हैं
लेकिन इन सब खुदाइयों के बाद
अंत में जो निकलता है वह होता है मिट्टी और पानी
वही आध्यात्म का प्रतीक होता है
क्योंकि धार्मिक स्थलों के अवशेष भी हो सकते हैं
धर्मों के अवशेष हो सकते हैं
इतिहासों के आवेश हो सकते हैं
लेकिन आध्यात्म का अवशेष नहीं होता।
और यह सब होता देखकर धरती क्या
सोचती है.
‘मुझे ही खोद रहे हैं
धार्मिक स्थलों/इतिहासों के अवशेषों के लिए
और मैं जो स्वयं सबसे निकट और बड़ी
मूर्ति/कहानी हूँ ईश्वर की
उसे देख भी नहीं रहे हैं।'
धरती का अर्थ अक्सर
साम्राज्य ही लिया गया
इसीलिए प्रश्न उठाये गये
धरती का नेता कैसा हो ?
धरती का सेवक नहीं कहा गया।
‘वीरभोग्या वसुन्धरा'
के स्थान पर अब शाश्वत मंत्र होना चाहिए
‘सर्वपूज्या वसुंधरा'।
धरती की पूजा/सेवा वही कर सकता है
जो धरती को सुन सकता हो
महसूस कर सकता हो
समझ सकता हो
संवाद कर सकता हो।
धरती चूंकि निकट दिखती है
इसलिए हर व्यक्ति
धरती पर अधिकार चाहने लगा।
जो दृश्य है और निकट है
व्यक्ति उस पर अधिकार करना चाहता है
और जो अदृश्य है
उसे पूजना चाहता है
जबकि पूजा का संतुलित स्वरूप यही है
कि जो निकट है, दृश्य है और सम्पूर्ण है
वही विराट ईश्वर का सर्वश्रेष्ठ प्रतीक है।
यदि सभी लोग
धरती की पूजा करने लगें
तो सहज ही खत्म हो जायेंगे सारे झगड़े, टंटे
लेकिन धरती की पूजा का अर्थ
धरती पर अधिकार जमाना नहीं होगा
अधिकार जमाना कुछ और है
तथा पूजा करना, समझना, संवाद करना कुछ और।
विराट ब्रहमाण्ड को समझना ही आध्यात्म है
लेकिन पूजा प्रतीक की ही की जाती है
और धरती ही विराट ईश्वर का
सबसे आदर्श प्रतीक है पूजने के लिए
यह कितना अच्छा है
कि धरती जानती है।
No comments:
Post a Comment