Wednesday, February 20, 2013
Friday, February 8, 2013
वह ज़िंदगी को हमेशा कहता सज़ा ही क्यँू है
छोड़ना चाहता है हाथ तो फिर हाथ गहा ही क्यँू है 1
अभी और देर तक रोशनी की जरूरत थी
अभी इतनी जल्दी वह चिराग बुझा ही क्यँू है ? 2
मिलते ही मैं हो गया मुरीद उस बेहतरीन शख्स का
नहीं मिला था तो ईष्र्या का भाव रहा ही क्यँूं है ? 3
क्यों नही होता जल्दी फैसला और अमल
गुनाह सबके सामने, फिर महज़ सिलसिलाये गवाही क्यँू है ? 4
प्रोग्राम तो लगभग नहीं के बराबर था
फिर मीडिया में ये लगातार वाहवाही क्यँू है ? 5
सब कुछ तो दे रखा है ईश्वर ने उसे
फिर उसे ये एहसासे तबाही क्यँूं है ? 6
जब बच्चे ही पाक हैं, सच बोल सकते हैं
तो उन्हें वोट देने सेे मनाही क्यँू है ? 7
ऐ खुदा ! तूने ही तो हर रंग बनाये हैं
फिर पेड़.पौधों,पत्तियों का मंजर हरा ही क्यँू है ? 8
वह तो मुफलिसों सा सबको नजर आता है
फिर भी जीने का उसका अंदाज शाही क्यँू है ? 9
अगर वाकई यह अत्याचार मिटाना चाहते हो
तो अब तक ये अत्याचार सहा ही क्यँूं है ? 10
त्यौहार व खुशियाँ पुराने कपड़ों में भी मन सकती हैं
फिर कपड़े नये हों, ये जिद हुआ ही क्यँू है ? 11
ऊँचे.ऊँचे टीलों पर बैठकर सोचते हैं बड़े हो गये
ऐसे.ऐसे भ्रमों को मिलती हवा ही क्यँू है ? 12
अधिकांश समस्यायें हमारी खुद की ओढ़ी हैं
गलत माँगने का रोग हमें लगा ही क्यँू है ? 13
प्रकृति में कहीं गैर जरूरी हिंसा नहीं है
समाज में इतना गैर जरूरी ख़ून ख़राबा हुआ ही क्यँू है ? 14
खुदा तो शुरू से ही सभी को मिला ही हुआ है
फिर हरेक बंदा खुदा की तलाश का राही क्यँू है ? 15
जब विक्रेन्द्रित सम्पूर्ण दृष्टि का अहसास नहीं है
फिर ध्यान केन्द्रित करना वह सिखाता ही क्यूँ है ? 16
छोड़ना चाहता है हाथ तो फिर हाथ गहा ही क्यँू है 1
अभी और देर तक रोशनी की जरूरत थी
अभी इतनी जल्दी वह चिराग बुझा ही क्यँू है ? 2
मिलते ही मैं हो गया मुरीद उस बेहतरीन शख्स का
नहीं मिला था तो ईष्र्या का भाव रहा ही क्यँूं है ? 3
क्यों नही होता जल्दी फैसला और अमल
गुनाह सबके सामने, फिर महज़ सिलसिलाये गवाही क्यँू है ? 4
प्रोग्राम तो लगभग नहीं के बराबर था
फिर मीडिया में ये लगातार वाहवाही क्यँू है ? 5
सब कुछ तो दे रखा है ईश्वर ने उसे
फिर उसे ये एहसासे तबाही क्यँूं है ? 6
जब बच्चे ही पाक हैं, सच बोल सकते हैं
तो उन्हें वोट देने सेे मनाही क्यँू है ? 7
ऐ खुदा ! तूने ही तो हर रंग बनाये हैं
फिर पेड़.पौधों,पत्तियों का मंजर हरा ही क्यँू है ? 8
वह तो मुफलिसों सा सबको नजर आता है
फिर भी जीने का उसका अंदाज शाही क्यँू है ? 9
अगर वाकई यह अत्याचार मिटाना चाहते हो
तो अब तक ये अत्याचार सहा ही क्यँूं है ? 10
त्यौहार व खुशियाँ पुराने कपड़ों में भी मन सकती हैं
फिर कपड़े नये हों, ये जिद हुआ ही क्यँू है ? 11
ऊँचे.ऊँचे टीलों पर बैठकर सोचते हैं बड़े हो गये
ऐसे.ऐसे भ्रमों को मिलती हवा ही क्यँू है ? 12
अधिकांश समस्यायें हमारी खुद की ओढ़ी हैं
गलत माँगने का रोग हमें लगा ही क्यँू है ? 13
प्रकृति में कहीं गैर जरूरी हिंसा नहीं है
समाज में इतना गैर जरूरी ख़ून ख़राबा हुआ ही क्यँू है ? 14
खुदा तो शुरू से ही सभी को मिला ही हुआ है
फिर हरेक बंदा खुदा की तलाश का राही क्यँू है ? 15
जब विक्रेन्द्रित सम्पूर्ण दृष्टि का अहसास नहीं है
फिर ध्यान केन्द्रित करना वह सिखाता ही क्यूँ है ? 16
Monday, February 4, 2013
मैं तो डायरियाँं लिखता अनायास रहा
मुझे क्या
पता कि ये उपन्यास रहा । 1
जीवन में लड़ाइयाँ रहीं इतनी तरह की
चन्द्रगुप्त,
चाणक्य कभी वेदव्यास रहा। 2
न जीवन से दूर न आध्यात्मिकता से
ऐसा ही
सहज मेरा संन्यास रहा। 3
आँखों को खोल के ही किया है ध्यान
हमेशा ही विवेक व होशो हवास रहा। 4
जब भी सृजन का रहा जुनून
तन या मन पर न कोई लिबास रहा। 5
हमने ही तो सब की भाषा समझी है
जो भी पेड़-पौधा,
पशु-पक्षी आसपास रहा। 6
अब विश्वयुद्ध संवेदनाओं से जीता जाएगा
भले ही
अब तक न कोई ऐसा इतिहास रहा। 7
व्यक्ति का नहीं, मुद्दों का विरोध
करता हूं
किसी के
प्रति मन में न एहसासे खटास रहा। 8
मैं चलता रहा गज़लों में पूरा संसार भरके
आग-पानी,
मौसम, समाज, खटास-मिठास रहा। 9
चारों ओर तू ही तू तो है छाया हुआ
मैंने जिधर
देखा तेरा ही उजास रहा। 10
हर पल में नयी शुरूआत की संभावना रही
हर इक सांस
में एक नया शिलान्यास रहा। 11
तुम्हारी
कोशिशें रंग लायेंगी एक दिन
उनमें
हमेशा ही भरा एक विश्वास रहा। 12
समझता बुनता
रहा सृष्टि में रिश्तों के ताने-बाने
वही
मेरे िलए
चरखा, सूत-कपास रहा। 13
सच्चे,
गहरे व तीखे भावों का असर होगा जरूर
भले
ही न ठीक वाक्य-विन्यास
रहा। 14
आँखें निष्पक्ष
थीं इसीलिए सब कुछ दिखा
निर्दोष,
पूर्ण-दृष्टि रही, न कि महज़ क़यास रहा। 15
जो कुछ
हुआ, सहज ही होता चला गया
नहीं
कुछ भी कभी जबरन या सप्रयास रहा। 16
मेरी हर
राह आम आदमी से होकर गुज़री
भले
ही किसी के लिए वह ग़ैर ज़रूरी प्रयास रहा। 17
संसाधनों
पर सारे जीवों का हक है बराबर
किसी
के पास जो भी रहा महज़ एक न्यास रहा। 18
चुल्लू
से पानी पीने को रहा तैयार सदा
क्या
फ़क़र्, पास में कभी लोटा न गिलास रहा। 19
वह सीधी
सादी भाष्ाा में बात कह गया
उसमें
न कोई अलंकार या अनुप्रास रहा। 20
रिश्ते
बढ़ते ही गये दूरियों के बावजूद
भले ही न वह हमेश्ाा हमारे
पास रहा। 21
वह चलता
ही रहा अपने सार्थक सपनों के लिए
लोगों
के लिए तो वह अक्सर निशानये उपहास रहा। 22
प्यार के दरवाजे तुमने कितनी बार खोले,
बंद किये
मेरी ओर
से सब
कुछ खुला, बिन प्रयास रहा। 23
हमेशा ही सबसे जुड़ा होने का खुलापन
और इसका
अभ्यास ही उसका राज़े सुवास रहा। 24
तेरी जरूरत नहीं पड़ी किसी भी मुक़ाम
पर
पर यही
क्या कम कि साथ तेरा एहसास रहा। 25
जाम चुक गया बेसबब तो क्या हुआ
ये क्या
कम था सामने ख़्ााली गिलास रहा। 26
जिंदगी उम्मीद की टिमटिमाहटों से कट जाती है
पानी भले
न मिला, बादल तो आसपास रहा। 27
जिसको जो मिलना था मिल गया अंदर
और मैं
बाहर खड़ा लगाता क़यास रहा। 28
मैं न धुना जा सका और न ही बुना
मैं सूत
न बन पाया, सदा कपास रहा। 29
हवा, आर्द्रता, रोशनी तो सारे जग से मिली
जड़ों का भोजन तो ठिकाने के आस-पास
रहा। 30
कभी आँसुओं,
कभी नदियों, सज्जनों, पेड़ों के
रहा बगल में, यही तो मेरा कल्पवास रहा। 31
साधना करनी पड़ी है जब पाना चाहा है ईश्वर के किसी खंड को
लेकिन विराट
ब्रह्म तो बिन प्रयास ही हमेशा आसपास रहा। 32
रोशनी के पास सिर्फ रोशनी नहीं होती
गर्मी, राह, जागरण, ध्वनि की कमी नहीं होती ।
प्यार भरे लफ़्जों से बड़ी कोई चीज मरहमी नहीं होती
संवेदना से बढ़कर कोई संजीवनी नहीं होती।
जडं़े और पंख दोनांे जरूरी हैं आदमी के लिए
जो आकाश समेटे बैठे ह,ैं पावों तले जमीं नहीं होती।
पत्थर और आदमी में फर्क तो महज इतना है
पत्थर के आँखांे व सीनों मंे नमी नहीं होती ।
सिर्फ आनन्द ही जिन्दगी का मकसद नही है
बगल का दुख देखकर किसके सीने में गमी नहीं होती।
जो सबसे करता हे निश्छल, बेशर्त, आदतन प्यार
सृष्टि दर्पण है, उसकी तरफ कोई कमान तनी नहीं होती ।
सबसे जुड़ाव जो करता है महसूस, रखता है ध्यान
जीवन में उसे किसी चीज की कमी नहीं होती।
यदि मन, विचार, कर्म व शब्द में एकरूपता हो
ते फिर संवादों में गलतफहमीं नहीं होती।
सभी तो यहाँ रहबरी का चोंगा पहने हैं
फिर क्यों कोई नहीं कहता कि यहाँ रहजनी नहीं होती।
सारी आत्मायें धरती से ही उपजी हैं
कोई भी आत्मा यहाँ आसमानी नहीं होती।
कौन कहता है सुख में नहीं होता है दुख
और दुख में सुख सनी नहीं होती ।
धरती पर इतने तरह के जीव जंतु हैं
आदमी को छोड़कर किसी की आमदनी नहीं होती।
हर कोई इतना अच्छा और दैवीय लगता है
अब तो सपने में भी किसी से दुश्मनी नहीं होती ।
जो सबसे करता हे निश्छल, बेशर्त, आदतन प्यार
सृष्टि दर्पण है, उसकी तरफ कोई कमान तनी नहीं होती ।
सबसे जुड़ाव जो करता है महसूस, रखता है ध्यान
जीवन में उसे किसी चीज की कमी नहीं होती।
यदि मन, विचार, कर्म व शब्द में एकरूपता हो
ते फिर संवादों में गलतफहमीं नहीं होती।
सभी तो यहाँ रहबरी का चोंगा पहने हैं
फिर क्यों कोई नहीं कहता कि यहाँ रहजनी नहीं होती।
सारी आत्मायें धरती से ही उपजी हैं
कोई भी आत्मा यहाँ आसमानी नहीं होती।
कौन कहता है सुख में नहीं होता है दुख
और दुख में सुख सनी नहीं होती ।
धरती पर इतने तरह के जीव जंतु हैं
आदमी को छोड़कर किसी की आमदनी नहीं होती।
हर कोई इतना अच्छा और दैवीय लगता है
अब तो सपने में भी किसी से दुश्मनी नहीं होती ।
हमारे सपने किन.किन अहंकारों से टकरा गये
और पंख किन.किन दीवारों से टकरा गये।
कुछ न कुछ तो नया रास्ता निकलेगा ही
जब आज के हालात पुराने संस्कारों से टकरा गये।
सभ्यतायंे तो हमेशा संगम ही करती रहीं
असभ्य व्यवहार ही सदैव असभ्यताओं से टकरा गये।
सबके जीने के अलग.अलग तरीके व औजार थे
लेकिन लोगों के औजार ही औजारों से टकरा गये।
साहित्य व विचार तो सबके भले के लिए ही हैं
फिर न जाने क्यँूं कुछ विचार ही विचारों से टकरा गये।
तमाम समस्यायें हो गयीं सहज ही वहीं पर पैदा
अन्दर के भाव जब बाह्य संचारों से टकरा गये।
वैसे तो मैंने सबकी सेवा करने का क्षेत्र ही चुना
फिर भी जाने क्यों मेरे काम दूसरों के अधिकारों से टकरा गये।
अंधेरों ने न तो कभी उजाले से, न अंधेरे से ही संघर्ष किया
आश्चर्य! हमेशा उजाले ही उजालों से टकरा गये।
ईश्वर जहां भी है, बैठा हंस ही रहा है देखकर
कभी साकार साकारों से या निराकार निराकारों से टकरा गये।
गुल खारों के साथ डाल पर मेल जोल से रहें तो ठीक
लेकिन हस्र साफ है जब वही गुल खारों से टकरा गये ।
हवा ही है जो धरा पर सारे ही जीवों को जोड़े हुए है
लेकिन क्या.क्या होता है बहार जब बहारों से टकरा गये।
सबसे जुड़ाव व संवेदनशीलता न महसूस कर ही
अक्सर अवतार तक अवतारों से टकरा गये।
gazal
- रोशनी के पास सिर्फ रोशनी नहीं होती
गर्मी, राह, जागरण, ध्वनि की कमी नहीं होती ।
प्यार भरे लफ़्जों से बड़ी कोई चीज मरहमी नहीं होती
संवेदना से बढ़कर कोई संजीवनी नहीं होती।
जडं़े और पंख दोनांे जरूरी हैं आदमी के लिए
जो आकाश समेटे बैठे ह,ैं पावों तले जमीं नहीं होती।
पत्थर और आदमी में फर्क तो महज इतना है
पत्थर के आँखांे व सीनों मंे नमी नहीं होती ।
सिर्फ आनन्द ही जिन्दगी का मकसद नही है
बगल का दुख देखकर किसके सीने में गमी नहीं होती।
जो सबसे करता हे निश्छल, बेशर्त, आदतन प्यार
सृष्टि दर्पण है, उसकी तरफ कोई कमान तनी नहीं होती ।
सबसे जुड़ाव जो करता है महसूस, रखता है ध्यान
जीवन में उसे किसी चीज की कमी नहीं होती।
यदि मन, विचार, कर्म व शब्द में एकरूपता हो
ते फिर संवादों में गलतफहमीं नहीं होती।
सभी तो यहाँ रहबरी का चोंगा पहने हैं
फिर क्यों कोई नहीं कहता कि यहाँ रहजनी नहीं होती।
सारी आत्मायें धरती से ही उपजी हैं
कोई भी आत्मा यहाँ आसमानी नहीं होती।
कौन कहता है सुख में नहीं होता है दुख
और दुख में सुख सनी नहीं होती ।
धरती पर इतने तरह के जीव जंतु हैं
आदमी को छोड़कर किसी की आमदनी नहीं होती।
हर कोई इतना अच्छा और दैवीय लगता है
अब तो सपने में भी किसी से दुश्मनी नहीं होती ।
Saturday, February 2, 2013
किसी को सुलाता हूँ तो किसी को जगाता हूँ
जिंदगी में हर फर्ज कैसे.कैसे निभाता हूँ।
किसी को मेरी वजह से तकलीफ न हो
इस एक ख्वाहिश में कितनी.कितनी चोटें कमाता हूँ।
बचपन नहीं कर सकता कल तक का इंतजार
उसका नाम आज है, उस पर आज ही ध्यान लगाता हूँ।
पहले जहाँ पूजा करता था फूल चढ़ाता था
अब जहाँ भी फूल देखता हँू, शीश नवाता हूँ।
अच्छे काम करते रहे, सब के आँसू पोंछते रहे
आज तक लगातार यही पूँजी कमाता हूँ ।
हर जगह जाना तो संभव नहीं हो पाया फिर भी
न जाने क्यूँ लोगों को लगता है हर जगह ही आता.जाता हूँ।
क्यों रिश्ते अजीब हो उठते हैं हर बार अलग.अलग
जब लोगों के सामने अपने घावों को दिखाता हूँ।
जो जुर्म करते हैं और फिर कबूल, वे ही खबर में, वे ही महान
और मैं इन दायरों के बाहर जबकि गल्तियाँ करने से कतराता हूँं।
बन्द आँखों से ध्यान में हुए हैं बहुत छलावे अब तक
मैं तो हमेशा खुली आॅंखों से ध्यान करता, कराता हूँ।
हमेशा ऊपर ही ऊपर जाने के लिए ही नहीं
अक्सर नीचे उतरने को भी पंखों को फैलाता हूँ।
स्वर्ग नर्क की कल्पनायें खत्म होनी चाहिए
पूरी सृष्टि को अपनी कोशिशों से स्वर्ग बनाता हूँं।
बुरी जगहों में जाकर भी अच्छा काम करता हूँ
लेकिन अच्छी जगहों को बुरे कामों से बचाता हूँ।
ध्यान केन्द्रित करना पढ़ने-पढ़ाने.समझने के लिए जरूरी है
लेकिन विकेन्द्रित सम्पूर्ण दृष्टि से जीकर ज़िंदगी सुखद बनाता हूँ।
Saturday, January 26, 2013
वह बेहद बदसूरत है फिर भी जिन्दा है
कुछ न कुछ खूबसूरती उसमें जरूर होगी।
वह बेहद खूबसूरत है फिर भी जिन्दा है
कुछ न कुछ बदसूरती उसमें जरूर होगी।
**
झूठ तो आँखें भी बोलती हैं
राज कुछ का कुछ खोलती हैं
दूर की दो लकीरों को एक दिखाती हैं
और अक्सर बड़ों-बड़ों
को छोटा तोलती हैं।
**
जीवन क्या है ? अनन्त होकर भी
सीमित महसूस करते हुए व्यवहार करना।
और अध्यात्म क्या है ? सीमित होकर भी
अनन्त महसूस करते हुए व्यवहार करना।
m
विरोधाभासों का पुलिन्दा है आदमी
इसीलिए
तो शायद ज़िन्दा है आदमी।
जिस बात से आज शर्मिन्दा है आदमी
उसी बात को कल कहे उम्दा है आदमी।
रमता जोगी बहता पानी है कभी
और कभी
तो पूरा दरिन्दा है आदमी।
ग़रज़ औरों की तो मुनादियाँ भी बेअसर
ग़रज़ उसकी तो परिन्दा है आदमी।
m
सावन में हर ओर का नज़ारा लगता है वन
सा
देर तक निहारो तो हरियाली लगती है अपने
तन सा।
केवल कामों पर ध्यान है, प्रचार-प्रसार में नहीं
बहुत बड़ा है फिर भी लगता है सामान्य
जन सा।
**
मन हल्का होकर फैल गया है गगन सा
तन सिहर-सिहर गया है शीतल मन्द पवन सा।
इतना प्यारा, खुबसूरत व खुशबुओं से भरा
वह लगता है एक ताजे़ खिले सुमन सा।
**
उसी की बात गहराई से असर करती है
जो सदा एक रहता है कर्मणा, वाचा, मनसा।
जो पूरी कायनात से जुड़ाव महसूस करता
है
वह धरती पर लोगों को लगता है एक किरन
सा।
Saturday, January 5, 2013
म्यानों को तो तलवारें ही मिलेंगी
तंग दिमागों को तो दीवारें ही मिलेंगी।
जब जंग, जेहाद के जमाने हों
जिधर देखो क़तारें ही मिलेंगी।
जब सब कुछ बिखर जाए रेज़ा-रेज़ा
उसकी रग-रग में पुकारें ही मिलेंगी।
इतना बड़ा हो गया है आजकल
उसके अग़ल-बग़ल
में मीनारें ही मिलेंगी।
मेरे लिए हमेशा आंगन में खड़ी रही
माँ तेरे आंचल में बहारें ही मिलेंगी।
लोगों के दुख-दर्द बांटने पर हमेशा
दिलों में दुआओं की फुहारें ही मिलेंगी।
जब ऊंचे शायर लोगों के बीच नहीं जाएंगे
मंचों से उलटी सीधी हुंकारें ही मिलेंगी।
खुद्दारी जिसे जाँ से भी प्यारी
है
कहाँ उसके आसपास दीनारें ही मिलेंगी ?
बिन िवचारे वोट देने व न देने वालों
को
हमेशा ऐसी वैसी सरकारें ही मिलेंगी।
Friday, January 4, 2013
रोशनी की एक किताब लिखता हूँ
अनुशासित इन्क़लाब लिखता हूँ। 1
संवेदनायेंें ही हमें जि़न्दा रखती
हैं
संवेदनायेंं बेहिसाब लिखता हूँ। 2
देशकाल बदलता रहता है
बदलावों का हिसाब लिखता हूँ। 3
आँच आए जब स्वाभिमान पर
रोशनाई नहीं, तेज़ाब लिखता हूँ। 4
वैसे हूँ फ़कीर, अमीरों के सामने
अपने को भी नवाब लिखता हूँ। 5
जुगनुओं को ढूँढ़-जोड़ कर
अंधेरों में आफ़ताब1 लिखता हूँ। 6
पर्यावरण संतुलन ही कल का धर्म
बार-बार
यही जनाब लिखता हूँ। 7
चांदनी रात में चमकती लहरें
समुंदर पर महताब लिखता हूँ। 8
तूफ़ानों के बीच बनानी हैं राहें
हौसलोंं की नाव औ आब लिखता हूँ। 9
सारी कायनात एक परिवार है
सोते-जागते
यही ख़्वाब लिखता हूँ। 10
साँसों में, नशा हो जिन्दगी का
साँसों की ही शराब लिखता हूँ। 11
तू है हर जगह पर दिखता नहीं
इसी ख़्ाूबी को तेरे नक़ाब लिखता हूँ। 12
जब तू जोड़ने वाली बातें बोले
तेरी ज़ुबां को गुलाब लिखता हूँ। 13
धरती पे गंगा है, आकाश में भी
पूरी कायनात को दोआब1 लिखता हूँ। 14
जब तू कहता है ज़माना खराब है
मैं तेरी सोेहबत को ख़्ाराब लिखता हूँ। 15
सीखता हूँ नन्हें बच्चों से भी
नवजात बच्चों को आदाब लिखता हूँ। 16
सारे जीवों के साथ मिल-जुलकर
आज के सवालों का जवाब लिखता हूँ। 17
न हों किसान तो भूखे मर जाएं
उसी के नाम सारे िख़्ाताब2 लिखता
हूँ। 18
क्रिसमस के तोहफे सबको मिल पाएं
मुफ़लिसों के नाम जुराब3 लिखता हूँ। 19
अंतस की क्षमताएं पूरी खिल जाएं
सबके आनंद का शबाब4 लिखता हूँ। 20
न हो दुख किसी को, न बंद हों रास्ते
खोजकर ऐसा आबो-ताब1 लिखता हूँ। 21
एहसासों को कूटता, पीसता, पकाता हूँ
तब कहीं शायरी का कबाब लिखता हूँ। 22
सबके दिलो जान को आ जाए सुकून
ऐसा मंत्र, न कि अजाब2
लिखता हूँ। 23
पारदर्शी है जिंदगी और शायरी
मैं दोनों को ही बेहिजाब3
लिखता हूँ। 24
सफ़र में बोझ कम हो जानते हुए भी
ग़ज़ल में कितना माल-असबाब4
लिखता हूँ। 25
दुनिया की सारी नदियां माँ सी प्यारी
हैं
तुम कावेरी, मैं चेनाब लिखता हूँ। 26
उड़ो और बुलंदियों पर पहुँचो
तुम्हारे लिए ही परे सुख़्ाार्ब5
लिखता हूँ। 27
धरती में उगती, आसमा से बरसती
मैं भी उन्हीं नेमतों का सैलाब6
लिखता हूँ। 28
सारा मीठा पानी बह न जाए समुंदर में
इसीलिए तो हर कहीं तालाब लिखता हूँ। 29
पूरी सच्चाई देख ही नहीं पाते हम
और कहते हैं उसे बेनक़ाब7 लिखता हूँ। 30
शायरी संवारती है शायर को भी मंंत्र
सी
इसलिए मैं शायरी नायाब लिखता हूँ। 31
आया धरा पर अनूठे गुण धर्म लेकर
तभी हर बंदे को लाजवाब लिखता हूँ। 32
हम अनंत, कायनात हमारा विस्तृत शरीर
जुड़ाव और देखभाल में बेताब लिखता
हूँ। 33
सवाल उठाना भी हिमाक़त माना जाता
सही सवाल उठाने की ताब1
लिखता हूँ। 34
जो बेसहारों को ढूँढे़ और मदद करे
उन्हीं के नाम सारे सवाब2
लिखता हूँ। 35
ईश्वर में क़ुदरत या कुदरत में ईश्वर
इसी भरम को तो मैं सराब3
लिखता हूँ। 36
जो दुनिया से ले कम और दे ज़्यादा
उसी बंदे को कामयाब लिखता हूँ। 37
‘जीत-जीत-जीत‘ के नियम से जी कर देखो
जिन्दगी का फ़लसफ़ा नायाब लिखता
हूँ। 38
पूजना है तो धरती माँ को सब पूजें
दिलो जां से पूजा ऐसी शादाब4
लिखता हूँ। 39
नफ़रत है बुराई से, बुरे से नहीं
मैं तो दुश्मनों को भी अहबाब5 लिखता
हूँ। 40
संवेदनाएं ही जोड़ती हैं हम सबको
संवेदनहीनता को गिरदाब1
लिखता हूँ। 41
बिखरा तो हुईं, तमाम मुकम्मल बूँदें
कभी-कभी ख़्ाुदा को सीमाब2
लिखता हूँ। 42
पूरी धरती प्यारी है, पवित्र है
पूरी धरती की माटी को तुराब3
लिखता हूँ। 43
सलीक़ा चाहिए माहौल से रस लेने का
तितलियों, भौंरों के नाम उन्नाब4
लिखता हूँ। 44
झूठ व फ़रेब की कमाई पचती नहीं है
तभी तो इन्हें क़़ुदरती जुलाब लिखता
हूँ। 45
गुनाहों को छुपाता है कोई बालों के रंग
मैं न ही परदा न ख़िज़ाब लिखता हूँ
। 46
जब ख़्ाुद में डूब,
ख़्ाुद से बात करता हूँ
कभी ख़्ाुदा कभी वह्हाब़5
लिखता हूँ। 47
इन्द्रधनुष को लोग क्या-क्या कहते हैं
मैं तो इसे आसमानी मेहराब6
लिखता हूँ। 48
वह ईमानदार है गुस्से में भी, प्यार में भी
इसीलिए उसी भोलेराम का रुआब लिखता हूँ। 49
m
Subscribe to:
Posts (Atom)